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Vivek Agarwal

Action Inspirational

4.9  

Vivek Agarwal

Action Inspirational

सच्ची स्वतंत्रता

सच्ची स्वतंत्रता

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सब कहते हैं हम अब स्वतंत्र हैं

पर सच कहूँ तो लगता नहीं

निज भाषा का तिरस्कार देखता हूँ

स्वदेशी पोशाकों को होटल, क्लब से

निष्काषित होते देखता हूँ

सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी में

मी लार्ड को टाई न पहनने के ऊपर

फटकार लगते देखता हूँ


ये कैसी स्वतंत्रता है

लगता है साहिब कहीं नहीं गए

यहीं विराजमान हैं 

बस बदल गया है

चमड़ी का रंग

अकड़ तो वैसी की वैसी है

और भारत माँ कहीं कोने में

सहमी बैठी है अपने उपेक्षा पर


न विधान अपना लगता है 

और न संविधान स्वतंत्र

लगता है वही हुकूमत चली आ रही है

बस हुक्मरान बदल गए हैं

कहते हैं लोकशाही है 

प्रजातंत्र है

जनता चुनती है 

भारत भाग्य विधाताओं को


फि

र क्यों नीतियों के दर्पण में

नहीं झलकती 

जनता की आशाएँ और अपेक्षाएँ 

क्यों आज भी जनता उंकड़ू बैठी है

हाथ बांधे 

साहिब की कुर्सी से दस कदम पीछे

सहमी हुई 

साहिब की हाँ की प्रतीक्षा में


लाल किले पर लहराता

ध्वज तो अपना ही लगता है

और गाये जाने वाले गीत भी

तो क्या स्वतंत्रता 

बस साल में दो दिवस का

उत्सव मात्र रह गयी है

जो शेष दिन गुजारती है

किसी अलमारी नुमा काले पानी में


सोचता हूँ

कब मिलेगी सच्ची स्वतंत्रता

जब निज भाषा बाहर निकलेगी

किसी एक दिवस के उत्सव से

हर दिवस में प्रयोग के लिए

निज संस्कृति व सभ्यता 

परिहास या लज्जा का नहीं

अभिमान का विषय होंगे

प्रतीक्षा रहेगी अनवरत .......


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