सच्ची स्वतंत्रता
सच्ची स्वतंत्रता


सच्चे अर्थों में हम कहां स्वतंत्र हुए हैं,
क्या हम लोकतंत्र औ जनतंत्र हुए हैं?
चाहे कोई बोले चढ़के ऊंची प्राचीरों से,
पर क्या स्वतंत्र हुए हम उन जंजीरों से।
जो अबला मन की पीरों से जनी हुई हैं,
भ्रष्टाचार के तीरों के लोहे से बनी हुई है।
मुख मोड़ रहे हैं अपने घायल वीरों से,
सनी स्वतंत्रता ये दुखियारों के नीरों से।
स्वतंत्रता मिली थी कैसे हम भूल गए,
कितने ही वीर बलिवेदी पर झूल गए।
अपने मायने देखो कैसे कैसे ब
दल रही,
एक नई बयार नई रीत आज चल रही।
स्वतंत्रता अब मोम की तरह पिघल रही,
किन-किन सांचों में देखो है ये ढल रही।
स्वतंत्रता की सबकी अपनी परिभाषा है,
इसके नाम पे ही देता हर कोई झांसा है।
अर्थ नहीं कुछ भी बोले कुछ भी कर जांए,
ध्यान रखें दूजे का सच्चा मतलब समझांए।
समझो तो साथ में चलने का वादा होता है,
वरना इसका मतलब केवल आधा होता है।
सच्ची परिभाषा इसकी सबको बतानी है,
तो स्वतंत्रता सच में हमको मिल पानी है।