सच्ची दास्तां
सच्ची दास्तां
जिंदगी कुछ अपनी है कुछ पराई भी,
कभी रास आई कभी ठुकराई भी,
कभी हंसाई गई कभी रूलाई भी।
कभी आजाद रहे बेफिक्र हो कर, कभी गुलामी से मिली
तन्हाई भी, उस परिन्दे का दर्द
कौन समझे जिसे मिली न कभी रिहाई भी।
उस फिक्र का क्या लाभ
जिसको जहर देकर दवा पिलाई भी, तड़पता रहा
ता उम्र दर्द से मरते समय
जख्म पे मरहम लगाई भी।
वो दोस्त भी क्या दोस्त रहा
जिसने छोड़ दी दिल की गहराई भी,
न तोड़ेंगे कभी साथ तुम्हारा
जिसने कसम खाई और खिलाई भी।
आखिर दिल का मर्म वोही जाने सुदर्शन जिसने जान दी
और जान गंवाई भी,
क्यों करता है विश्वास हर किसी पे आखिर ये दूनिया
जितनी अपनी है इतनी पराई भी।