मैं एक आतिथ्या सी...
मैं एक आतिथ्या सी...
तुम्हारी यादें और तुम आज भी नहीं बदले!
सदा ही बिन बुलाए अतिथि की तरह
मन के दरवाज़ें पर दस्तक दे देते हो।
और मैं बावरी, एक आदर्श आतिथ्या सी
पुष्प वर्षा से तुम्हारे स्वागत को सदा आतुर!
प्रेम में डूबी मीरा बनकर रह जाती हूं ।
आज भी बाध्य हूं मैं विरह का विष पीने के लिए...
और तुम माधव बन, लेते हो मेरे धैर्य की परीक्षा ।
नि:संदेह तुम्हारा प्रेम पारंगत है तंत्रमंत्र की कला में
अतः क्षीण कर देते हो मेरी शक्तियों को तुम!
जब बांध लेते हो मुझे अपने मोहपाश में ।
ठीक वैसे ही जैसे बना लेती है एक चक्रव्यूह!
तुम्हारी यादें, मेरे मन के चारों ओर
जिससे मैं कदापि बाहर नही आ सकती
या यूं समझो कि मैं स्वयं आना नहीं चाहती ।
क्योंकि... आज भी तुम्हारी यादों की तरह
मैं भी नहीं बदली।