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Govind Narayan Sharma

Romance

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Govind Narayan Sharma

Romance

आफ़ताब

आफ़ताब

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कोई बचाए कैसे भला उसे बिखर जाने से,

 दिल जो बाज़ न आये हरदम फ़रेब खाने से !


वो शख्स एक ही लम्हे में टूट बिखर गया ,

जिसे मैं तराश रहा था इक जमाने भर से ! 


न जाने कितने चराग़ों को मिल गयी शोहरत,

इक आफ़ताब के बे-वक़्त डूब जाने भर से!


हवा ने होले से छुकर यूँ कुछ कहा मुझसे,

शाख पत्तों पर हक नहीं तेरा उगने भर से !


जब चाहूंगी पलभर में जमींदोज कर दूंगी,

इतरा न तूफाँ बन दरख्त उखाड़ दूंगी जड़ से!


तेरी मर्जी से ढल जाऊं ये जरा मुमकिन नही,

मेरा अपना वजूद है दबता नहीं तेरे खोफ से!


ये फूल भी कांटो को दोस्त बनाकर रखते हैं,

शाख भी लरजती हैं कलियों की गमक से !


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