सच है शायद...
सच है शायद...
सच है कुछ-कुछ पत्थर सी हो गई हूँ मैं,
लगता है अब सहने का हुनर आ गया है।
पहले बात-बात पर उखड़ जाया करती थी,
लगता है अब चुप रहना दिल को भा गया है।
पहले खामोशियाँ मुझसे मिलने कहाँ आती थी,
लगता है अब इन्हें भी मेरा ही दर पा गया है।
खामोश रहकर सुन पाती हूँ सदाएँ दिल की,
अपने जज्बातों को मुझे समझना आ गया है।
समेट लेती हूँ हर तंज हर तल्खी को लेखनी में,
बड़ा अजीब है लेकिन इक तज़ुर्बा आ गया है।
उसके दिल की बातें बिन सुने ही जान जाती हूँ,
उसकी आँखों को पढ़ने का सलीका आ गया है।
जमाने के रिवाजों को कागज़ पर लिख देती हूँ,
रूढ़ियों से बगावत का इक तरीका आ गया है।
बहुत मुश्किल है “मीन” सबको खुश रखना यहाँ,
हर एक शख्स की जबां पर कोई शिकवा आ गया है।
