सामने जब वह आती है ज्वा मेरी लड़खड़ाती हैं
सामने जब वह आती है ज्वा मेरी लड़खड़ाती हैं
सामने जब वह आती है
जुबाँ मेरी लड़खड़ाती हैं
बोलने का है क्या
क्या जुबाँ बोल जाती हैं।।
पता नहीं उस वक्त क्या
मेरी जुबाँ को हो जाती हैं
धीरज खो कर
अधीर सी हो जाती है।।
विचलित और व्याकुल हो कर
त्राहि-त्राहि हो जाती हैं
अंदर ही अंदर विद्रोह कर
फिर शांत हो जाती है।।
दबे स्वर दब कर
अंतर आत्मा में रह जाती हैं
पर क्यों नहीं यह जुबाँ
उनके सामने खुल पाती है।।
टूटे-फूटे शब्दों में उनसे
लड़खड़ाते हुए कुछ कह पाती हैं
पता नहीं उस वक्त क्यो
जुबाँ साथ मेरी नहीं देती है
जुबाँ साथ मेरी नहीं देती है।।