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अभिषेक कुमार 'अभि'

Abstract

5.0  

अभिषेक कुमार 'अभि'

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सादा पन्ना

सादा पन्ना

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ओ पिता ! तुमने दिया

हम सभी बच्चों को,

एक-एक सफेद, साफ, सपाट

कागज का पन्ना सादा।


और कहा न हम से-लो बच्चों !

जाओं जाकर होकर आओ

सभी, दुआर से खेल कर आओ

और पन्ने पे, जिसके जितना ही,

लघु अंक में दाग रहेगा

उसको तो, अधिक उतना ही,

मेरी ओर से अंक रहेगा।


हाँ ! मगर यह याद रहे कि,

वहाँ किसी कोने में किसी की

‘गुड़िया’ व ‘गुल्लक’ रखी है

वहीं दूजे कोने में बिखरे,

‘पाशे’-‘पट्टाखे’ भी पड़े हैं।


आगाह करता हॅूं मैं तुमको

यदि किसी ने भूले से भी,

हाथ लगाया जरा जो उनको

तो उनके ‘कच्चे रंगों’ से

‘पक्के धब्बे’ हाथ लगेंगे।


तथा हाथ में थामें पन्ने,

पर तो भद्दे दाग लगेंगे।

साथ मैं कह देता हूँ यह भी,

जुगत लगा लो चाहे जितनी,

दाग जरा भी नहीं धुलेंगे

मिटाते मिट जाओगे आप ही,

पर वे हरगिज नहीं मिटेंगे।


बात समझ ओ पिता तुम्हारी,

आ पहुँचे हम खेल खेलने।

मुझको क्या कुछ अंक मिलेगा ?

बात यही मैं लगा आंकने।


हाथों में हरदम मेरे, जो

पन्ना एक रहता है सादा

उसको अपनी जान से ज्यादा,

बचाता मैं चाहता हूँ खेलना।


समझ न आता खेलूँ कैसे ?

क्या-कब-कहाँ जतन-करूँ कैसे ?

जगह-जगह फैले मैले में,

पन्ने को सम्भालूँ कैसे !


जहाँ भी हाथ रखूँ मैं देखूँ,

वहाँ कहीं कुछ गर्द तो नहीं !

ऐसे में पन्ने को सुथरा,

कब तक रख पाऊँ पता नहीं।


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