रोटी मेहनत की
रोटी मेहनत की
लगती थी मेला जिस गलियों में,
वहां आज बड़ा सन्नाटा है
जो घूमते थे टहलते थे कभी यहां
वो अब कोई यहां न आता है
है लोग कितना मजबूर यहां
जो है अभी मजदूर यहां
न काम मिला न काज है
दाने _दाने को मोहताज है
ये सहर की गलियों में
दिन भर का थकना होता था
एक जेब खाली मगर था
दूजे में रकम छोटी थी
मेहनत की वो सुकून भरी
जब मिलती शाम की रोटी थी ।
आ गई अब मशीन यहां
जहां काम हमारा होता था
वो जगह भी खाली हो चुकी
जहां बेबसी सोता था
न पढ़े लिखे हम है जो सीखे
कहानी इमारत वालों की
उम्मीद भरी निगाह देखती
राहें ऊपरवालों की
वो है बड़ा दानी है
पर ये दिल मेरा स्वाभिमानी है
आदत सी हो गई है अब तो
जीना आया था जिस पथ से
खाऊं न मैं मांग किसी से
लाऊंगा रोटी मेहनत से।