रोष युक्त व्यथा
रोष युक्त व्यथा
सुनिये, पुरुष थे ना इसलिए
किसी भी मोड़ पर छोड़ कर मुझे
बन सके महात्मा बुद्ध आप।
मैं नारी हूँ और मुझे गर्व है नारी होने पर
मैं हमसफ़र को छोड़कर नहीं जाती
आधी रात को सोते हुए चुपचाप।।
मैं नहीं गयी तुम्हारा घर छोड़कर
नहीं गयी त्याग कर गृहस्थी तुम्हारी
अपने माता-पिता के पास।
मैं नहीं गयी छुप-छुपकर कहीं भी, कभी भी
तुम्हारे बूढ़े माँ-बाप तुम्हारी जिम्मेदारी थे
पर आजीवन ध्यान उनका मैंने रखा
रही सदैव बनकर उनके बुढापे की आस।।
तुम्हारे वंश के कुलदीपक का ध्यान रखा
और पुरा ध्यान रखा तुम्हारे सम्मान का।
पर प्रश्न तो कुछ मेरे भी है जो अनुत्तरित है
क्या गृहत्याग से पूर्व तुमने भी कभी ध्यान रखा मेरे मान का??
क्यों रात को मेरे बहुत करीब आते हुए
जब छुई थी तुमने मेरी काया।
अपने वंश का बीज मेरे गर्भ में प्रत्यारोपित करते हुए
ज्ञान, धर्म-अधर्म जैसे बड़े-बड़े शब्दों का विचार
तुम्हारे मन-मस्तिष्क में तब नहीं आया??
दुःख है, दुःख का कारण है
त्याग कर गृहस्थी दुनिया को तुमने बतलाया।
पर तुम खुद मेरे लिए असह्य पीड़ा का कारण बने
इस कटु सत्य को मैंने समाज के समक्ष कभी नहीं जतलाया।।
अगर बनना ही था वैरागी तो कोरा ही रहने देते मुझे भी
यों झूठा करके मेरी पवित्रता को आखिर तुमने क्या पाया।
अपनों का भार चोरी से मेरी तरफ़ सरकाकर
तुम्हारा आधी रात को घर छोड़ जाना मेरी समझ में कभी नहीं आया।।
जब त्योहार था कोई आता
महल की दासियाँ तक सजती-संवरती।
मैं राजमहल की रानी होकर
जोगन जैसी ड़ोलती-फिरती।।
तुम भागे जिम्मेदारियां छोड़ कर
फिर भी तथागत की उपाधि पायी।
मैं सारे कर्तव्य निभाकर भी क्यों मात्र
बुद्ध की पत्नी यशोधरा ही कहलायी !!