रिश्तों की राख पे
रिश्तों की राख पे
भाग रही ये जिदंगी
हम जो कभी गुथें थे 'रिश्तों ' में
आज है बिखरे टूट के
जीवन हुआ 'बियावान' सा
कभी दौड़ता था मन 'रिश्तों' में
अब हटते कदम पीछे को हैं
'अपनत्व' की एक रहती
तो 'अहम' हमें रोकता
वो दिन भी क्या दिन थे ?
प्राण पपीहा साथ कुहकते
प्यार खिलखिलाता था
'रिश्तों की पोटली'समेटे
आज उनके रहते हुए
स्वर हमारे थम गए
'सुप्त ' हो गई भावनाएं
वो भी हो गए ' विलुप्त' से
ह्रदय अब भी है धड़कता
' दोगली' हो चुकी हैं धड़कनें
'हूंक' अब उठती है नहीं
'नेह वीणा' के टूटे हैं तार
गांठों पे गांठ 'रिश्तों' पे लगी
आंसुओं से भीग गाढी़ हो गई
'पोटली' हुई है जीर्ण क्षीण
फटने के डर से बचाई जरा
'बाजारीकरण' के युग में
' मन की धरा' बंजर हुई
लग गई 'बींजो' को 'दीमक'
'प्रेमाकुंर' फूटे तो कैसे ---?
भीड़ भरे इस जग में
हम- तुम तो कहीं खो गए
'ख्वाईशे' कुछ भी तो ना थी
फिर भी हम 'मतलबी' हो गए
'स्वार्थ' की आंधी चली
' निस्वार्थी' हुए धूल धूसरित
'दिखावे' का डंका जो बजा
'भोलापन' उसमें पिट ही गया
आज खड़े 'तन्हा' से' वो'
हम भी 'तन्हा' से हो गए
ढूंढते हैं हम 'उन्हें'
ढूंढते हैं वो 'हमेें'
'दूरियां'- इतनी बड़ी
'वो' वो ना रहे
और 'हम' हम ना रहे
' ढोह' रहै हैं 'रिश्तों की पोटली'
जो अब सो गई हैं आंख मूंदे
'रिश्तों की राख' पे।