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P Anurag Puri

Abstract

4.9  

P Anurag Puri

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मैं वो किताब हूँ

मैं वो किताब हूँ

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630


हर रिश्ते का मर्म हुँ,

एहसासों का मैं नर्म हुँ,

में वो किताब हुँ...

जिसमें लिखा ज़िन्दगी का हिसाब हुँ !!


समझने से परे जनाब हुँ,

बेहतरीन नग्मों का गान हुँ,

गौर से पढ़ो तो अक्स हुँ,

वरना एक अनजान सख्स हुँ,

आसान है शब्द मगर,

पर बहती ज्ञान की परिभासा हुँ,

में वो किताब हुँ...

जिसमें लिखा ज़िन्दगी का सीधा सपाट सच हुँ !!


हर लफ्ज़ का पेहचान हुँ,

नये सबेरे में कल्पना का उड़ान हुँ,

भाबनाओं का संग्रह हुँ,

खुशियों का पैगाम हुँ,

दूर गगन में पहुंच सके खामोशी का शोर हुँ,

रोशन करूँ इस जंहा को एक ऐसी आफताब हुँ,

साहिल-ऐ-संमन्दर मे एक बिन सवार का कस्ती हुँ,

पत्त झड़ के बाद रस-बिहीन सा एक सूखा खड़ा बृक्ष हुँ,

में वो किताब हुँ...

जिसमें लिखा जीबन का सम्पूर्ण आधार हुँ !!


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