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Nirupama Naik

Tragedy

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Nirupama Naik

Tragedy

रिश्ते से पराई

रिश्ते से पराई

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जब से होश संभाला है

ये सुनती आई हूँ

बेटी हुन इस घर की

मगर धन पराई हूँ।

सहेज के रख था जैसे

दूसरे की ही अमानत थी

दहेज की पूंजी जैसे

ससुराल में मेरी ज़मानत थी।

सोचती थी के शायद

उस घर मे मेरी मर्ज़ी तो चलेगी

नही सोचा था की हर ख्वाहिश के लिए

पहले अर्ज़ी देनी पड़ेगी।

पापा की आंखें नम होजाया करती थी

कभी कोई पराया धन कहदे तो

अब मिलने जाऊं क्या ? पूछती हूँ

तो कहते हैं -रहने दो

अब उनको भी मालूम होगया

की मर्ज़ी नहीं चलती

उनसे मिलने कभी मैं

अपनी मर्ज़ी से नहीं निकलती।

पहुंच भी जाती हूँ अगर

मिलने मायके वालों से

दिल बैठ जाता है मेरा

बाहर वालों के सवालों से।

कब तक रुकोगी बेटी ?

ये पूछने से कतराते नहीं

क्योंकि ब्याह के बाद लड़कियां

पीहर में सुहाते नहीं।

कुछ दिन और रुक जाती तो

पड़ोसी पूछते- दोबारा कब आओगी ?

इस बार इतने दिन रहली

अपने घर वापस कब जाओगी ?

वापस लौटती हूँ ससुराल तो

देखते हैं -साथ क्या लाई है ?

क्या ख़ाली हाथ ही

अपने घरसे लौट आई है।

कुछ दिन तक ऐसा भी

रोज़-रोज़ होता है

कुछ गलतियां हो जाये तो कहते हैं

ये सब तुम्हारे मायके में चलता है।

कभी कोई कह जाये कि

ये तुम सब से अलग है

तो जवाब देते हैं

दूसरे घर से है, तभी ऐसे ढंग हैं।

मुझसे जन्मे बच्चे

ससुराल के कहलाते हैं

मुझसे तो जैसे कोई रिश्ता नहीं

फिर भी अपने कहलाते हैं।

कैसी विडंबना है मेरी किस्मत में

किस कारण में यहाँ आई हूँ ?

आज दोनों घर की होकर भी

मैं दोनों के लिए "पराई" हूँ।


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