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Nirupama Naik

Abstract

3  

Nirupama Naik

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रण या खेल ?

रण या खेल ?

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क्या है ये ज़िन्दगी ?

कभी खेल लगे कभी रण

कसौटियों से भरी हैं राहें

परीक्षायें हैं प्रति क्षण


साँसों का भी ऋण होता है

जब जब लें उधारी लगती है

चुकाते रहने का सफर सा लगे ज़िन्दगी

जीने की प्यास हर सांस में जगती है।


कभी कभी नीति बनानी पड़ती है

मानो रणभूमि की कोई प्रतिस्पर्धा हो

जीतने का मंत्र है - जज़्बा और जुनून

साथ में लगन और श्रद्धा हो।


कभी कोई खेल सा भी लगता है

मिट्टी का घरोंदा बनाने का

अजीब सा डर भी रहता है


समंदर की लहरों में उसके बहने का।

हर इक कदम पे सवालों का बसेरा है

लड़ने से जवाब मिलते नहीं के

क्या तेरा है क्या मेरा है


अंधेरे से निकलने का प्रयास सा ज़िन्दगी

जब जाग जाओ तब सवेरा है।

यहाँ सब अपनी धुन में रहते हैं

पर हर इक का दूसरे से नाता है


ऐसी ही कुछ पहेलियों का कारवां

ज़िन्दगी हर पल बताता है।

कभी कभी ऐसा भी लगता है जैसे मेरे सवालों का

ज़िन्दगी की परिभाषा के साथ कोई मेल नहीं


ज़िन्दगी का सफ़र बस एक

सफ़र ही होता है शायद

कोई रण नहीं और कोई खेल नहीं !


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