अक्स
अक्स
धुंदली-धुंदली राहों पे कुछ नज़र तो आ रहा था
कुछ हक़ीक़त और कुछ परछाई से छा रहा था
रौशनी की कमी थी या कुछ और था पता नहीं
चलती जा रही थी उसे सामना करने, वो क्या है? पता नहीं
कदम तो तेज़ थे, मगर दम में ज़ोर न था
उससे अलग जैसे कोई छोर न था
जितना मैं आगे बढ़ती गयी, उतना आगे वो अक्स जा रहा
जैसे मैं उसकि तलाश में, और वो मुझे कहीं और ले जा रहा
धुंद में पीछे देखा तो भी कुछ नज़र न आया
उस अंधेरी रात में मानो, डर का कोई असर न छाया
मैं चलती जा रही, बस आगे-आगे
जैसे थक चुकी थी किसी दौड़ में भागे-भागे
ये क्या था जो मुझे खींच रहा था
जैसे उजड़ी बहारों को कोई फिर से सींच रहा था
वो अक्स से हक़ीक़त में आने का नाम नहीं ले रहा
मेरे खोज का अब तक कोई अंजाम नहीं दे रहा
ये नशे सा उतर चुका था जैसे नसों में मेरी
बस पाना था उसे चाहे जितनी भी हो देरी
इसकी हक़ीक़त तलाशना जैसे अब मकसद था मेरा
इसकी चाहतों ने मानो मुझे कस के था घेरा
मैं मानूँ या न मानूँ ये मुझे मनाता जा रहा था
कुछ अजीब सी उत्सुकता दिल में जगाये जा रहा था
आँखों पे भरोसा तब भी हो जाता है
थक कर शरीर जब निस्तेज सा सो जाता है
ये ख्वाबों का कारवां ही तो है जनाब...
तुम मानो या न मानो इक अक्स के पीछे हक़ीक़त में दौड़ा ले जाता है!!!