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Nirupama Naik

Abstract

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Nirupama Naik

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द टॉर्न पॉकेट

द टॉर्न पॉकेट

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जितना भी मैं भरती जाऊं

ख़ाली ख़ाली सा लगता है

समेटने लग जाऊं अगर

बेहाली सा लगता है


मैंने तो सब कुछ संजोना चाहा था हमेशा

अचानक सब बिखरे से लग रहे क्यों ?

मेरी कोशिशों पे लगातार

सब सवाल रख रहे हैं क्यों ?


इक इक तिनका मैंने जोड़ा था

अपना आशियाँ बनाने को

हर चीज़ की हिफाज़त की थी

उसे खूबसूरत बनाने को


पर देखो तो...जो भी संजोया

सब कहीं खो सा गया है

खुशियों का एक सफर सुहाना

कहीं गुम हो सा गया है


ऐसा लगता है जैसे

मैं बेकार ही कोशिश करती जा रही थी

अपने हिस्से की अनमोल पूंजी को

किसी 'फटी जेब' में भरती जा रही थी।


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