रे खुदगर्ज़ इंसान
रे खुदगर्ज़ इंसान
मतलबी इंसान क्या था तू क्या हो गया है
बेमकसद जाने किन उलझनों में खो गया है
रास्तों को भी तेरी मंज़िल का कोई पता नहीं
रात का जागा दिन के उजाले में सो गया है
रिश्तों के कच्चे धागों को क्यों तूने तोड़ दिया
बचपन के यारों को क्यों तूने पीछे छोड़ दिया
रुखसत के बाद सिर्फ़ दो गज ज़मीन चाहिए
अनजान बन ज़िन्दगी से क्यों मुख मोड़ दिया
झंझटों के साये में किधर तू निकल रहा है
अपने इरादों से पल-पल क्यों फिसल रहा है
कितना और धँसेगा तू ग़रूर के दलदल में
कामयाबी की तपिश में ईमान पिघल रहा है
कहीं नरम धूप कहीं मायूसियों के घने बादल
जिंदगी की जद्दोजहद ने कर दिया तुझे घायल
सुकून की डाल पर अब कोयल गीत नहीं गाती
तेरे आँगन में खुशियों की टूटी झनकती पायल
नादाँ इंसान कितना आगे और तुझे है जाना
सांझ ढले पंछी को भी लौट कर घर है आना
क्यों भटक रहा है चुटकी भर सुकून के लिए
पल-पल उलझ रहा है जिंदगी का ताना-बाना।