बेताब
बेताब
बेताब सा चेहरा दिखा आज, मौजों की भीड़ में,
अकेला ही महसूस कर रहा था अपनों की भीड़ में।
बेदर्द दिख रहा था सारा जमाना ,
न मिला काम का कोई, सभी मस्त थे अपनी मस्ती वा तकरीर में।
कुछ पी कर मस्त नशे में गा रहे थे, चेहरे छुपा रहे थे अपनों की भीड़ में।
दिख रही थी महफिल सजी है मगर उदासी बतला रही थी सच्चाई क्या है गैरों की दलील में।
फर्जी हँसी दिखी नकली चेहरे मिले, आपस में टकराते अपनों की भीड़ में।
मांगते रहे दुआ जिनके लिए जो हर पल कतारों में लग कर शिवालों की भीड़ में।
आज वोही दिखे अनजान
बैठे महफिल में, जैसे गुम हो गया है कोई लाखों की भीड़ में।
दिख रहे थे, मुँह पर नाकाब लगाये, नजर चुराये अपने ही गैरों की भीड़ में।
कुदरत से छेड़छाड़ मुनासिब नहीं होती सुदर्शन मगर नहीं दिखते अपने ही माँ वाप आजकल दोस्त यारों की भीड़ में।
क्या सोच है, किधर जा रहा है जमाना छोड़ अपनों को, परायों की भीड़ में।
दिखता है हरेक को अपना ही यौवन, नहीं सोचता बूढ़ा भी गुजर चुका है कभी जबानी की भीड़ में।
इतनी मौज मस्ती भी अच्छी नहीं सुदर्शन की अपनाों को ही ना पहचान सकें अपनों की भीड़ में।
मत भूल कल तेरा भी यही जश्न होगा, जब डल, जायेगा जवानी की ढील में।,
अपने तो अपने होते हैं अक्सर सुदर्शन, फिर क्यों भूलता है उनको अपना ही आखिर चन्द
महफिलों और गैरों की भीड़ में।