रात्रि स्त्रैण नहीं होती।
रात्रि स्त्रैण नहीं होती।
तारिकाओं
से जगमगाती,
हर रात्रि
स्त्रैण नहीं होती ।
कहीं कहीं
स्तब्ध नीरवता में
असह्य पौरुष नाद
जब बवंडर हो उठता है।
प्रकृति के लास्य को बलात भंग
करता हुआ विकृत अट्टहास करता है।
समयांतर निस्तेज
स्त्री देह में पीड़ा से पोषित
लज्जित करता जीवन उगता है,
सदा उथले भावों में पलता है।
पुनः एक जीव निर्दोष
पतित पौरुष समाज को
नागफनी सदृश्य चुभता है।
हा! ये पुरुष प्रकृति दुर्योग क्यों होता है?
आजन्म निरपराध कोई अपमानित क्यों होता है ?
