रात-दिन
रात-दिन
वाह !
बहुत खुशी हो रही होगी
भला क्यों न हो
फिर से एक दिन गुजार जो दिये
आज की दफ्त़री पूरी जो कर ली
मुस्कुराओ !
यही तो काम है तुम्हारा
मुस्कुराते हुए आते हो
मुस्काते-मुस्काते चले जाते हो
हमारी जिंदगी के खाते से
एक दिन की आयु यूँ ही चुरा जाते हो
रोज।
जानते हो !
तुम्हारे जाते ही वो आती
अपनी गोद मे सबको सुलाती
धकेलती नहीं
तुम्हारी तरह
दरबदर भटकने को।
तुम दिमाग मे चिन्ताएँ बोते
पर वो सबके आँखों मे सपनेँ बुनती
लोरीयाँ सुनाती, कहानी दिखाती
परीयोँ की, परीलोक की
तुमसे ये सब भी सहा नहीं जाता,
है न ?
उन सपनों को छितराने चले आते हो
अपनी मुँह मे वही झूठी सी मुस्कान लिये।
तुम जिन जिन को सताते,
वो उन्हे सवारती
तुम जिन्हे तोडते,
वो उन सबको जोडती
पर
तुम्हारी उसी मुस्कान से
बेचारी फिर पिघल जाती
और छोड़ जाती है उनको
तुम्हारे भरोसे
तुम्हारे दफ़्तर में
फिर भाग-दौड़ में शामिल होने
फिर से पीसने, फिर से घिसने, फिर से मरने।
