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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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रामायण१६ वनगमन की तैयारी

रामायण१६ वनगमन की तैयारी

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 श्री राम आज्ञा मांगें पिता से

वन को गमन करूं मैं अब

बात सारे नगर में फैल गयी 

नगरवासी जान गए थे सब।


कोई कहे कैकयी है कुटिल 

कोई कहता दोष दशरथ का भी

विधाता ने ऐसा ही लिखा था

दुखी बहुत थे लोग सभी।


कुछ ब्राह्मण स्त्रियां आईं

कैकयी को वो समझाएं

पर जब देखा वो न समझे

गाली देती वो जाएँ।


राम कौशल्या के पास पहुंचे

माता की लेने आज्ञा

चित्त प्रसन्न, ह्रदय में आनंद 

सोचें अच्छे मेरे भाग्य।


जुग जुग जिये मेरे लाल तू

माता उनसे कहने लगी

राम के ऊपर ममता आई 

दूध की धारा बहने लगी।


तैयार करो राजतिलक है आज 

राम कहें मैं वन जाऊं

पिता दिया वन का राज्य मुझे

तुमसे जाने की आज्ञा पाऊँ।


अब चौदह वर्ष के बाद मिलूँ 

कांप गयीं कौशल्या सुनकर

आँख से आँसू छलक गए 

ह्रदय में विषाद गया भर।


धर्म और स्नेह दोनों ने

बुद्धि को था घेर लिया

धर्म संकट में पड़ी हुई थीं वो 

 किस्मत ने मुँह था फेर लिया।


मन में सोच विचार किया

और बोलीं वो धीर धरकर

आज्ञा पिता की मानी तुमने

ऊँचा कर दिया मेरा सर।


वन देवता पिता होंगे 

तेरी माता वनदेवी वहां

पशु पक्षी सेवक के जैसे

अयोध्या मानो तुम रहो जहाँ।


माता ने लगा लिया ह्रदय से

मन राम का भी थोड़ा भारा

सीता जी को जब पता चला

दुःख मन में, आँख में जल धारा।


सीता की दशा देख कौशल्या

समझ गयीं थी उनका मन

जाना चाहती थीं सीता जी भी

रामचंद्र के साथ में वन। 


प्रभु समझाएं जानकी जी को 

गुण दोष वन के, दें अपना ज्ञान 

अन्यंत्र मत लेना इसको 

बात सुनो तुम मेरी देकर ध्यान | 


घर रहो , बात मेरी मानो 

माता का तुम ध्यान रखो 

हठ करोगी तो दुःख पाओगी 

मेरे वचन का तुम मान रखो। 


वन में कांटे, कंकर पत्थर 

पैदल उन पर चलना होगा 

दुर्गम नदियां और नाले 

भूख से भी तुम्हें लड़ना होगा। 


रीछ बाघ भेड़िए हैं वहां 

मनुष्य खाने वाले राक्षस 

सोना पड़े जमीन पर और  

कंदमूल फल हैं खाने में बस। 


प्रियतम के कोमल वचन सुन 

नेत्र सीता के भर आये 

मन व्याकुल हुआ ये सोच सोच  

मुझे छोड़कर न चले जाएँ। 


बोलीं मेरे परमहित को 

आप ने शिक्षा दी है ये मुझे 

पर बिना आप मेरा जीवन 

ऐसे ,जैसे बिना जीव के देह। 


जल के बिन जैसे होती नदी 

बिना पुरुष के है स्त्री वैसी 

ले चलिए मुझे भी अपने संग  

बिन आप के मैं मृत जैसी। 


देखा सीता मानेगी नही

कहा तैयारी करो वनगमन की 

सीता ने माता चरण छुए 

माता ने उनको शिक्षा दी। 


लक्ष्मण ने जब सुना तो वो 

दौड़े आए थे राम के पास 

बोले सेवक मैं आपका हूँ 

साथ जाऊं मैं भी वनवास। 


राम ने उनको समझाया 

सेवा करो माता पिता की 

लक्ष्मण बोले साथ चलूँ स्वामी 

बस आप आज्ञा मुझ को दो अभी। 


आप ही मेरे सब कुछ हैं 

माता पिता मैं जानूं ना 

अकेले आप को जाने न दूँ 

साथ जाए बिन मैं मानूँ न। 


मान गए श्री राम चंद्र 

कहा माँ से आज्ञा ले आओ

सहमी थी माँ पर धैर्य रख 

कहा राम के साथ तुम वन जाओ। 


अब राम तुम्हारे पिता समान 

और माँ तुम्हारी हैं सीता जी 

मन कर्म वचन से तुम करना 

वन में सेवा उन दोनों की। 


राजद्वार पर भीड़ बड़ी भारी 

तब राम गए दशरथ के पास 

गले लगें राम के बार बार 

समझाएं उन्हें पर कोई न आस। 


कैकयी ले आयीं मुनि वस्त्र 

बोलीं करो लगे अच्छा जो 

शील और स्नेह ना छोड़ें राजा 

न कहेंगे तुम को जाने को। 


कैकयी वचन लगे राजा को ऐसे 

जैसे तीखा वाण दिया हो मार 

 मूर्छित हो गए राजा फिर से 

तीनों वन जाने को तैयार। 



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