रामायण१५;कैकई का वर मांगना
रामायण१५;कैकई का वर मांगना
दो वर थे दिए आपने
मांगू भरत बनें युवराज
चौदह वर्ष वनवास राम को
ये वर दूसरा दे दो आज।
सुन कर रंग उड़ा दशरथ का
कैकई कहे करो हाँ या ना
प्रतिज्ञा की हुई है आपने
तुम कर नहीं सकते मना|
बचन कैकई के लगे हैं जैसे
नमक जले पर कोई लगाए
कहते दशरथ दुखी हो कर फिर
भरत और राम मुझे दोनों भाएँ।
भरत को राज्याभिषेक मैं दे दूँ
पर दूसरा वर बहुत कठिन है
राम तो मुझे प्राणों से प्रिय है
मन में बसता मेरे रात और दिन है।
कैकई बोली ये समझ लो
राम को वन जाना होगा अब
अगर राम न गए तो समझो
मेरा मरा मुँह देखेंगे सब।
हे राम, हे राम ,ये कहते हुए
दशरथ जी गिर पड़े जमीं पर
शरीर स्थिल था, कंठ सूख रहा
आंख से आंसू गिरें थे भर भर।
कड़वे बचन कैकई ने बोले
लगे ह्रदय में तीर के जैसे
दशरथ कहें पाप मेरा कोई
सामने आया है वो ऐसे।
जो लगे अच्छा, वो करो तुम
मुख न देखूं अब मैं तेरा
मन में राम को याद करें वो
रात कट गयी, हुआ सवेरा।
राजद्वार पर शंख, वीणा की
ध्वनि राजा को अच्छी लगे ना
प्रजा और मंत्री ये पूछें
कहाँ हैं राजा, क्या अभी जगे ना।
राजा की दशा थी देखी
सुमंत्र जब महल में आए
कैकई बोली बुलाओ राम को
उन्हें याद कर सो न पाए।
सुमंत्र वहां से चले गए
रामचंद्र को वो ले आए
पिता के होंठ थे सूख रहे
वो राम से कुछ भी बोल न पाए।
पिता के दुःख का कारन राम ने
माता कैकई से पूछा था जब
बोली, पुत्र स्नेह और प्रतिज्ञा
धर्मसंकट में हैं, ये अब।
सारी बात जब पता चली तो
कहें राम, जो पिता वचन दिया
पूरी तरह पालन करूंगा
जो भी प्रण है उन्होंने किया।
मैं बड़भागी पुत्र, पिता का
जो पूरा करूँ उनका वचन
वन में ऋषि मुनि मिलेंगे
दुर्लभ दर्शन से शुद्ध हो मन।
हर्षित हो गयीं रानी कैकई
तब दशरथ की थी मूर्छा टूटी
ह्रदय से लगा लिया राम को
पर किस्मत थी उनसे रूठी।
मन में शिव आराधना करें
कैसे भी राम न जाएं वन
चाहे अपयश भी हो मेरा
व्याकुल बहुत था उनका मन।