रामायण ४४ ;रावण का अहंकार भंग
रामायण ४४ ;रावण का अहंकार भंग
हसें बहुत सुन पवनसुत को
दक्षिण की और देखें और बोलें
हे विभीषण, उमड़े हैं बादल
गरज रहे हैं होले होले।
बिजली भी है चमक रही
कहीं हो ना ओलों की वर्षा
विभीषण बोले, हे कृपालु
ये न बिजली, ना बादल की घटा।
महल है एक लंका की चोटी पर
रावण नाच गाना वहां देखे
सिरपर काला छत्र बादल सा
कर्णफूल चमकें बिजली से।
अनुपम वाद्य ,मृदंग बजें जो
मधुर ध्वनि जैसे बादल का स्वर
मुस्काये प्रभु ये सब सुनकर
सोचें अहंकार चढ़ा उसके ऊपर।
धनुष चढ़ाया बाण संधान किया
बाण रावण का मुकुट गिराया
मंदोदरी के कर्णफूल को
भी फर्श पर था ले आया।
सबने देखा इन्हे जमीं पर
पर किसी ने भेद न पाया
बाण ये सब कुछ करकर फिर
वापिस राम के तरकश में आया।
रंग में भंग देख कर सारे
सभागन भयभीत हो गए
न भूकंप न आंधी चली
कैसे हुआ ये, सोच में खो गए।
कहें सब ये भयंकर अपशकुन है
रावण हंसा, कहे वो ऐसे
सिर गिरना जिस के लिए शुभ है
उसके लिए अपशकुन ये कैसे।
कर्णफूल गिरने से मंदोदरी
रावण से बोलीं, सोच में पड़के
राम को तुम मनुष्य न समझो
भगवान हैं वो, इस चराचर के।
रावण कहे, आठ अवगुण स्त्री के
साहस,झूठ , चंचलता, माया
भय, अविवेक,अपवित्रता,निर्दयता
ये अज्ञान तुम में भी समाया।
चराचर तो है मेरे वश में
कहीं ये मेरा बखान तो नहीं
मंदोदरी सोचे ये काल के वश में
मेरी बात समझ ना आ रही।