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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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रामायण ३६;हनुमान समुन्द्रपारगमन

रामायण ३६;हनुमान समुन्द्रपारगमन

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जाम्ब्बान के वचन को सुनके

हर्षित बहुत हुए हनुमान

सीता जी की सुध लाऊंगा

प्रभु का मैं रखूँगा मान।


समुन्द्र तीर एक पर्वत सुंदर

कूदकर चढ़ गए उसके ऊपर

उछले भरी वेग से जब वो

गायब हुआ वो पातळ में धंसकर।


हनुमान चले फिर ऐसे

जैसे बाण अमोघ राम का

समुन्द्र कहे मैनाक पर्वत से

स्थान दो इन्हे विश्राम का।


हाथ से उन्होंने छुआ मैनाक को

कहते अभी मैं न विश्राम करूं

मुझको जाने की है जल्दी

पहले मैं राम का काम करूँ।


देवताओं ने भेजी सुरसा,कहा

बल बुद्धि की परीक्षा लो तुम

बोली सुरसा हनुमान को

आज के मेरे भोजन हो तुम।


हनुमान कहें सुन हे माता

राम का काम मैं करने जाऊं

खा लेना तुम बाद में मुझको

कुछ देर में बस मैं वापिस आऊं।


फिर भी न मानी जब सुरसा

कहें,चलो तुम खा लो अभी

जितना मुँह खोले थी सुरसा

शरीर बढ़ाएं दुगुना तभी।


सौ योजन जब मुँह खुल गया

छोटे होकर वीर हनुमान

घुस कर मुँह में तुरंत निकल गए

सुरसा का भी रखा मान।


आगे चले देखा समुन्द्र में

सिंहनी नाम की राक्षसी को

छाया पकड़ती थी पक्षी की

फिर खा जाती उस पक्षी को।


यही कपट किया हनुमान से

उसको मार किया पार समुन्द्र

एक पर्वत पर चढ़ कर देखा

क्या क्या है लंका के अंदर।


एक बड़े किले समान है

चारों तरफ अथाह समुन्द्र

सोने के परकोटे हैं वहां

पहरेदार बाहर और अंदर।


मच्छर समान रूप धरा

रात में तब प्रवेश किया

द्वार पर लंकिनी एक राक्षसी

अंदर उसने जाने न दिया।


बोली, मुझसे पूछे बगैर कोई

नगर के अंदर न जा पाए

जो चोरी से अंदर आये

वो मेरा आहार बन जाये।


घूंसा एक मारा हनुमान ने

खून की उलटी कर दी उसने

पृथ्वी पर वो गिर पड़ी थी

उठी तो , विनती की थी उसने।


रावण को जब ब्रह्मा वरदान दें

मुझसे भी था कहा विस्तार से

राक्षसों का विनाश होगा जब

व्याकुल होगी तुम, बन्दर की मार से।


 


 

 


                    


 



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