प्यार
प्यार
चार दिन चांदनी फिर वही रात है
आजकल इश्क़ में ऐसा ही हाल है।
पानी के बुलबुले जैसी है आशिकी
अब न मजनू है कोई, न फरहाद है।
हुस्न में भी वो तासीर अब है कहाँ
वो न लैला न शीरी की हमजात है।
जिस्मों में सिमट कर वफ़ा रह गयी
खोखलेपन से लबरेज़ ज़ज्बात है।
माशुका में न वो नाज़ुकी ही रही
आशिकों में कहाँ यार वो बात है।
इश्क़ में इस कदर है चलन आजकल
रोज जैसे बदलते वो पोशाक है।
मतलबी इश्क़ है मतलबी आशिकी
प्यार तो अब अजय सिर्फ़ उपहास है।
