पुरुषार्थ
पुरुषार्थ
पुरुषार्थ
दृढ़ प्रतिज्ञा
मनुष्य का कवच है
भूले हुए पथ को
निकाल लेता है,
मेघ को चीर
वर्षा को धरा पर
लाता है,
शंखनाद करके
रणक्षेत्र में
प्रतिद्वान्दियों को
धूल चटाता है,
चीरता है
सागर की लहरों को
फिर एक नया सेतु
बनता है,
चलता है ओज से
विश्व को बाँहों में समेटकर
गर्व से सीने पर
झेलता है तीर को,
धर्म ऐसा ही बनाओ
मन सदा ऐसा बनाओ
राष्ट्र को परिवार समझो
श्रेष्ठ कुल का मान समझो !