पुराने जमाने
पुराने जमाने
काश संस्कार भी फैशन हो जाते ।
लोग सुंदर शरीर से ज्यादा सुंदर कर्मों को महत्व दे पाते।
तन के कपड़े कम कर के
आंचल को छोड़ करके
पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करके
क्या ज्यादा सम्मानित है होते ?
अपनी जड़ों को छोड़ कर के
क्या पेड़ कभी पनप सकता है?
अपनी परंपरागत वेशभूषा को छोड़कर
क्या सच्चा व्यक्तित्व बन सकता है?
पाश्चात्य सभ्यता अपनाकर,
पाश्चात्य वेशभूषा पहनकर,
पाश्चात्य साहित्य पढ़कर,
इस देश को आगे बढ़ा सकते हो क्या?
आंख बंद करके याद तो कर लो,
मां के आंचल की शीतलता,
रंग बिरंगी चुनरियों का उड़ना,
घुंघट किए हुए मां के चेहरे की वह कोमलता।
पाश्चात्य कपड़े पहन कर भागती हुई नारी
क्या तुमको मां सी लगती है?
बिन चुनरी बहना जब डोले, बेशर्मी से जब वह बोले
तब क्या तुमको बहना सी लगती है?
याद नहीं आते तब संस्कार पुराने
गोल सी बिंदी ,चूड़ियों की खन खन।
रची हुई मेहंदी और वह पुराने तराने।
शायद हम भी हो गए पुराने।
नए जमाने की रीति हम ना जाने।
कदम मिलाकर साथ तो चल लें।
लेकिन खुद के मन को कैसे छल लें
हमें तो अब भी अच्छे लगते हैं वही
संस्कार और अपने जमाने पुराने।
