स्वयं को जाननेकी यात्रा
स्वयं को जाननेकी यात्रा
स्वयं को जाने बिना,
नहीं खिल पाएगा मानव व्यक्तित्व,
जो ढूंढ ना सका स्वयं को,
कैसे ढूंढेगा जग का अस्तित्व,
यात्रा ये स्वमनन की,
है अनोखी मान लोगे,
जान लोगे जिस दिन स्वयं को,
विश्व को तुम जान लोगे,
प्रज्ञा का निर्झरण यही है,
शून्य का अवतरण यही,
जानता जब स्वयं की मनुज है,
पाता है स्थिरीकरण तभी,
साध्य तो स्वज्ञान है,
साधन उसका ध्यान है,
स्वज्ञान ही वो परम शिखर,
जिसका पायदान ध्यान है,
ध्यान ही तो प्रथम चरण है,
और अंतिम सोपान भी,
ध्यान से मन होता निर्मल,
और मिलता ज्ञान भी,
स्वज्ञान के अध्याय का,
ध्यान एक पद्यांश है,
मोह के बंधन सभी,
इस मार्ग में व्यवधान है,
चिर निरत अभ्यास से ही,
मिल सके ये वो ज्ञान है,
जीवन पथिक की यात्रा में,
आत्म का सम्मान है,
ये एक ऐसा है दिया,
जो जल बिखेरे रोशनी,
स्वज्ञान का रिश्ता मनुज से,
जैसे चाँद की है चांदनी,
जिस दिन मिलेगा ज्ञान ये,
सब द्वार तब खुल जाएंगे,
भय मोह और अज्ञान के,
बंधन दूर हो जाएंगे,
मिल जाएगा उस दिन मनुज को,
वास्तविक अपना व्यक्तित्व,
और स्वयं के साथ ही,
वह ढूंढ लेगा जग का अस्तित्व।।