पत्थर
पत्थर
अफ़वाहों का क्या है
वो तो कहीं से भी आकर
कहीं भी अपना
घर कर लेती है
सतर्क तो आपको
खुद से रहना है
वो आप ही है
जिन पर
यह अफवाहें
अपना असर कर देती है
कौन है मेरा और
मैं हूँ किसका
बस यही जानने को
भटकना है दर-दर
इसी भटकने में
ज़िद भी अपनी
कमर तोड़ देती है
न शहर अपना
न लोग अपने और
न कोई अपना
जिन्हें अपना कहे
उनकी अपनाहत
वक़्त पड़ने पर
मुँह मोड़ लेती है..
जो पत्थर ही रह गया
सबने उसको
ख़ुदा कर दिया है
इंसान का वजूद
उसके खोखले आदर्शों ने
इंसानियत से
जुदा कर दिया है
हो गए सब पत्थर
इंसान जो थे
सारे जानवर
अब इंसान हो गए
पत्थर तो बहुत पहले ही
ख़ुदा हो गए है......
