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ashok kumar bhatnagar

Tragedy Classics Thriller

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ashok kumar bhatnagar

Tragedy Classics Thriller

"पत्थर और पहाड़ के बीच"

"पत्थर और पहाड़ के बीच"

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पत्थर और पहाड़ के बीच (थीम: निरर्थक जीवन और सतत प्रयास)

हर सुबह वही चढ़ाई, वही चट्टान भारी, सूरज की किरणें भी लगतीं अब कुछ शर्मिंदा सारी।
 सिसिफस चलता है अकेला, न थमता है, न रोता, पर्वत की चोटी पर पहुँचना — उसका एकमात्र होता।

 फिर भी हर बार वो लुड़क जाती है, पत्थर की वो चाल,
 क्या यही है जीवन का सार — एक बेमानी सा सवाल?
 शरीर थकता नहीं अब, मन हारा नहीं है, एक जिद है बस उसकी — "मैं दोबारा यहीं हूँ फिर से।"

 न कोई ईश्वर, न इनाम, न कोई तमगा मिले,
 बस इस अंधे सफ़र में खुद से एक वादा चले।
 वो जानता है पत्थर गिरेगा ही — यही उसकी नियति, फिर भी हर बार उठकर जीता है वो अजीब सी शांति।

 क्योंकि अर्थ नहीं होता, फिर भी कर्म ज़रूरी है,
इस बेतुकेपन में भी कहीं कोई मजबूरी है।
 हर गिरावट में भी, वो तलाशता है जीवन,
 चोटिल कंधों पर लिए वो ढोता है स्वाभिमान।

जीवन चट्टान नहीं — पर उस पर चढ़ने का हौसला है, सिसिफस का संघर्ष ही उसकी आत्मा का राग है।
 उसे हार नहीं, बल्कि प्रयास का सुख मिला है,
 वो पत्थर नहीं, स्वयं एक पर्वत बना है।  


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