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DR. RICHA SHARMA

Romance

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DR. RICHA SHARMA

Romance

पत्र जो लिखा मगर भेजा नहीं

पत्र जो लिखा मगर भेजा नहीं

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पत्र जो लिखा मगर भेजा नहीं लगता है मेरे भेजे में भेजा नहीं

भीतर बहुत कुछ सहेजा पर कहने का आया मुझे लहज़ा नहीं


निरक्षर से जब हुई साक्षर तो पिरोने लगी एक-एक अक्षर

कलम को चलाने की कला मुझे न आती थी

चिट्ठी को समक्ष रख लिखते हुए घबराती थी

अपनी भावनाओं को किसी से न कह पाती थी


वर्तमान दौर में सभी के संग चलने का साहस मैं जुटाती थी

काबलियत से भरी दुनिया में खुद को कमज़ोर मैं पाती थी

चाह कर भी किसी को मुख से बोल नहीं मैं पाती थी

तब कागज़-कलम के सहारे ही मैं बहुत इठलाती थी


पैन-पन्ने की ताकत को तब खूब मैंने पहचाना

स्वर-व्यंजन के भेद को भी भली प्रकार जाना

आखिर समझ आने लगा जीवन का ताना-बाना

न भेजने वाले लिखे हुए पत्र संग मेरा मस्ती में लहराना


डाक में न डालने पर खूब बहाने बनाते जाना

स्वयं के द्वारा रचित पत्र को छू कर मेरा मुस्कुराना।


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