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Shalini Prakash

Tragedy

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Shalini Prakash

Tragedy

पतझड़

पतझड़

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कुछ धुआं सा उठता है 

अंगारों सा मन धधका है 

क्यों ढूंढे मन उस राही को 

जिसने हमसे मुँह फेरा है 


छोड़ गया है मुझे अकेला 

भटकते रेगिस्तान में

प्यासी धरती सी मेघ ढूंढती 

अम्बर से मांगूं पानी मैं 


आज ही आदि अंत हो गए 

हर सपने मेरे ध्वस्त हो गए 

सूखे वृक्षों के नीच 

बस पिले पत्तों का पहरा है 


कब फूल उगे पक्षी चहके 

ये आस लिए मन क्यों भटके 

आज हमारी सुन्दर बगिया में 

पतझड़ का मातम पसरा है।


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