पहल
पहल
सोचती हूँ कभी, क्यूँ उस दिन तुम्हे रोका नहीं,
क्यों नहीं पूछा तुमसे बिठा कर अपने पास,
"क्यों रूठे हो मुझसे जनाब, जो
छुड़ा कर जाते हो अपना हाथ।"
बस इतना ही तो करना था,
जब तुम्हे और मुझे अपनी राह चुनना था,
तो ना आज ये उलझने होतीं,
ना उनमे फ़सी जिंदगी होती।
बस इतना ही तो करना था।
एक पहल जिंदगी को आसान बना सकता था,
जो आज अधूरा है उसे पूरा सजा सकता था।