प्रथम शैलपुत्री
प्रथम शैलपुत्री
दक्ष की तनया सती शिव की बनी अर्धांगिनी,
प्रेम की मूरत सती कैलाश पति की स्वामिनी,
यज्ञ आयोजन किया भेजा निमंत्रण दक्ष ने,
दिक्पाल यक्ष सुदक्ष को भेजा बुलावा दक्ष ने,
महिपाल भूप महीपति आए सभी गंधर्व भी,
लखि दृश्य सबके गमन का पूछती सबसे सती,
पाकर निमंत्रण दक्ष का सब यज्ञ देखन को चले,
तिहुँलोक से सब देवता नर नाग किन्नर भी चले।।1।।
तात के गृह यज्ञ की सुनकर सती हर्षित हुईं,
सुन यज्ञ की वो सूचना उत्साह में विह्वल हुईं,
हर्षित हृदय लेकर सती पूछती शिवशम्भु से,
इच्छुक हूँ मैं भी हे! प्रिये मिलके आऊँ मात से,
चलिए मेरे हे! नाथ संग में यज्ञ का दर्शन करें,
मम पिता के यज्ञ में यज्ञाहुति अर्पण करें,
हे! स्वामिनी अर्धांगिनी है यज्ञ - आमंत्रण नहीं,
सम्मान के बिन हे ! प्रिये प्रतिकूल है जाना कहीं।।2।।
जनक हैं वो आपके इच्छुक हों तो फिर जाइए,
यज्ञ अवलोकन करें और शीघ्र ही आ जाइए,
शिव की आज्ञा पा सती हर्षित चलीं कैलाश से,
चरणरज माथे लगा प्रस्थान कीं कैलाश से,
पितृगृह जाकर सती उत्साह में देखन लगीं,
थे सजे हर द्वार तोरण दुन्दुभी बजने लगी,
मंत्रध्वनि चहुँ ओर गायन कर रहीं थी नारियाँ,
बृहद यज्ञस्थल अलौकिक उठ रही चिंगारियाँ।।3।।
विष्णु ब्रह्मा इंद्र संग सज रहा समाज था,
दक्ष यज्ञ में सभी का मान और सम्मान था,
नहीं दिखी सती को जो स्थान शम्भुनाथ के,
सत्कार न मिला न प्राणाधार का ही भाग था,
जल रही यज्ञाग्नि और तमतमा उठी सती,
शम्भु के अपमान का आघात वो न सह सकीं,
धधक रही थी यज्ञ अग्नि क्रुद्ध नेत्र लाल थे,
चली प्रबल विक्षोभ हृद दमक रहे ललाम थे।।4।।
अपमान से व्यथित हृदय बढ़ा कदम सती चली,
विध्वंस यज्ञ दक्ष का करन को देवी बढ़ चली,
विक्षुब्ध मन लिए सती प्रवेश अग्नि में हुई,
प्रचण्डता थी अग्नि में विलीन अग्नि में हुईं,
समाधिस्थ ध्यानमग्न शम्भु के त्रिनेत्र खुल गए,
कराल काल के सदृश विकराल रूप धरी गए,
खींच केश खण्ड को झटक मही पे डाल दी,
प्रकट हुए दो रुद्र अंश पर विध्वंस भार डाल दी।।5।।
विकराल रूप धारकर सती का शव सम्भालकर,
पटकि पटकि पाँव शिव ताण्डव करन लगे,
धरती भी डोल उठी काँप गया अम्बर तक,
मानो काल लपकि वहाँ मुण्ड भी काटन लगे,
विकराल रूप भाँप के वियोग शिव के जानि के,
प्रकट किए वो चक्र नाथ हाथ में धरन लगे,
जहाँ जहाँ गिरे थे अंग शक्ति पीठ बन गए,
प्रकट हुईं पुनः सती पिता हिमालय बन गए।।6।।
हाथ में त्रिशूल धारे बैल पर सवार माँ,
माथे पर चन्द्र गले मोतियन के हार माँ,
नाम तेरो शैलपुत्री अनुपम स्वरूप माँ,
शरण तेरे आनि पड़ा करती उपकार माँ,
कैलाशपति नाथ संग करती विहार माँ,
दे आशीष हे ! भवानी सुखकर संसार माँ,
प्रथम शैलपुत्री करो जग का कल्याण माँ,
आज करो बेड़ा पार नाव फंसी मझधार माँ।।7।।