प्रकृति पुकारती
प्रकृति पुकारती
होकर संवार बदलों के रथ पर
उड़ने चली मैं गगन के पथ पर
उमंगे लेकर आई है प्रकृति
मन मंदिर में कई गीत जगाती
बूंदों से खिला है सारा उपवन
उन्माद भरा भंवरों का गुंजन
मुग्ध है छ्टा , प्रकृति खिली खिली
पुरवा भी देखो है शीतल चली
ओस की बूंदे चमकती लुभाती
गगन झुलाए इंद्रधनुष सतरंगी
पंछी भी सुर से सुर मिलाते
भिन्न शब्दों के कई गीत गुनगुनाते
बुला रही प्रकृति, सावन भीगा है
कण कण में सजा रूप अनोखा है
ऐसे में बला रुकें कैसे यह कदम
बनकर आईं है सृष्टि जब हमकदम.......

