प्रकृति का बदला
प्रकृति का बदला
स्वार्थ के इस पुतले ने,
इतने पैर पसारे।
छोटी पड़ गई इसकी,
छुड़ने लगेे ठिकााने।
वृक्षो को इसने ,
पक्षी को घर हीन किया।
भटक रहें है आसमान में,
उनके नहीं ठिकाने।
दौड़ रहा है आसमान में,
चंदा को हथियाने।
भूल गया औकाद ही अपनी,
सूरज को ललकारेे।
मानव नहीं दानव बनकर,
संस्कृति का संहार करे।
कहीं करे नरसंहार यह,
तो कहीं नारी पर बार करे।
मानव तेरे कुचक्र ने,
यह कैैसा चक्र रच डाला।
अपनी मृत्यु का वरण तूने,
खुद ही कर डाला।
छूटे है घर इनके,
छूटे रिस्ते नाते।
न कोई अस्त्र है,
न कोई शस्त्र काटे।
बिना किसी हथियारे केे,
ये मरते हैं बेचारे।
छोटी पड़ चादर इनकी,
छुड़ने लगे ठिकाने।
बनके कोरोना प्रकृति ने,
अब इनको ललकारा है।
कर लो अपनी भूल का,
प्रायश्चित अब भी समय तुम्हारा।