नारी
नारी
माँ के उदर में रहकर,
तू सहमी और मुरझाई।
छिन्न-भिन्न न कर दे तुझको,
यह सोच-सोच घबराई।
जन्म लिया धरती पर तूने,
रो-रो व्यथा सुनाई।
प्यार पिता का पाने को,
तूने मोहक छवि लुटाई।
नन्हें-नन्हें पैरों से,
जब चलना सीखा।
सहमी-सहमी नजरों से,
तूने हर दिल को लूटा।
बड़ी हुई संस्कारों की,
वेदी पर बैठी।
पिता और पति का संवरण करने वाली,
तू दहिता बन बैठी।
एक दिन जग में तू,
नारी रूप में आई।
छोड़ शत्रुता को तूने,
मित्रता खूब निभाई।
चन्द्रिकाओं से चंचल तू,
सुता रूप में आई।
सुख सम्पत्ति को देने वाली,
तू स्रोत सुता कहलायी।
धीरे-धीरे रूप बदल कर,
तू अबला बन आई।
भटके हुए पुरुष को,
फिर वर्तमान में लाई।
उगते सूरज की किरणों के संग,
तूने छटा बिखराई।
पुरुषों को संयत करने वाली,
फिर स्त्री कहलायी।
प्रकृति के संग खेल-खेल,
तू दार्शनिक बन आई।
शरीर नहीं आत्मा को बतलाने वाली,
फिर अंगना कहलाई।
बनकर सहचरी पुरुषों की तू,
उनको विस्मित करती है।
उनकी मार्गदर्शक बनकर,
फिर एक महिला बनती है।