परिवार
परिवार
परिवार है मंदिर
जिसमें प्रायः
मूर्ति नहीं होती !
ना कोई घंटी
पर होते हैं बुजुर्ग,
देवताओं के अवतार।
पुजारी होते हैं
उनके बेटा -बेटी
और बहू होती है देवदासी !
पोते-पोतियां
तीनों पहर भोग लगाते
बुजुर्गों की थाली में !
और अंत में कर्तव्य आता हैं
"संगठन" को बांधने का,
जिसका दायित्व होता है ताऊ का,
जब इतने कर्तव्य पूरे होते हैं
तब जाकर पूरा होता हैं परिवार।
लेकिन परिस्थितियां गंभीर है
आज पैसे की ताकत रिश्तों से बड़ी है
मर्यादा सब, ताखों पर रखे हैं
उत्तम होती है आज कटु बोली।
अपने सब किसी ओर हैं
जहां दीवार थी सरहदों की
ठीक उससे पहले हम
परिवार में भिड़े हैं।
समस्या यह नहीं कि क्या दिक्कतें हैं
सम्मान की टोपी पहनने को
अपमान की चादर ओढ़े हैं !
ताऊ- भाई एक ही पेड़ की गुठली
परंतु अपने पेड़ को छोड़
बबूल में लटके हैं।
चुभन अच्छी लगती है कांटों की
तभी तो अपमान की बोरी को,
सम्मान समझ निकले हैं।
परन्तु हम कह सकते हैं
बंधन को परिवार कहते हैं !
लेकिन ज़बरन घुटन को
लाचारी शायद,
ऐसी परिस्थिति को आजकल
परिवार कहते हैं।
उम्मीद है ना हो ऐसी दशा !
हम सभी का अंतिम प्रयत्न कर
बचा ले अपनी मंदिर को
नहीं तो समय विकट हैं
अपने को छोड़ सब संकट हैं !