प्रीत
प्रीत
जब से प्रीत लगी है तुम से
साँस जुडी जैसे सरगम से
पलक पाँवड़े राह बिछी हैं
मन मंदिर में दीप जलाकर
हर आहट पुलकित कर देती
करूँ प्रतीक्षा स्वयं भुलाकर
ऐसा बंधन बाँधा हम से
जब से प्रीत ..............
पल पल जीना मुश्किल है अब
हुई बावरी मीरा जैसी
मिलन स्वप्न में भी दूभर हैचाह
जगी अंतर में कैसी कब तक
मुझसे दूर रहोगे रोको मत अब
इस संगम से जब से प्रीत ...
याद सताती मुझको निशदिन
विरह ज्वाल उर को झुलसाता
पास नहीं होते हो जब-जब
मन मेरा आशंकित होता
तुम्हीं बताओ प्रेम यही है
घिरे हुए हैं या
कि वहम से
जब से प्रीत ................