चिट्ठी
चिट्ठी
चिट्ठी क्या ज़माना था ?
जब आती थी चिट्ठियाँ...
इंतज़ार में बीतीं घड़ियाँ कब आयेगी न जाने,
कब आये डाकिया ?
उसे देखते ही मिलती अनजानी सी खुशियाँ
लिखने वाले के स्पर्श की ऊष्मा
निशान माँ के आंसुओं के या प्रेयसी की सिसकियाँ
चिट्ठी खोल पढ़ने की उतावली हँसना रोना साथ मुस्कुराना
प्रिय किताबों में या रेशमी रुमालों में छुपाना हो उदास पल
सामने फिर पढ़ना दुबारा अजीब था वो ज़माना ..
मेल, सूक्ष्म -सन्देश फ़ोन पर हों बातें यंत्र चालित मिलें
अब यंत्र में कहाँ संवेदना दे नहीं पायें वो कौतूहल
जो देती चिट्ठी-पत्री
जीवन की आपाधापी में लिखने -पढ़ने को पल दो पल
आज नहीं है फुर्सत लें समेट आँचल में छोटी- छोटी खुशियाँ