प्रेतनी का पचड़ा
प्रेतनी का पचड़ा
सातों दिन मैं हफ्ते के
चौबीसों घंटे डरता था
भूत पिशाच ना आ धमके
इस डर से सहमा रहता था
थे परिहास उड़ाते लोग मगर
उन मूर्खों ने क्या देखा था
वो खंडहर वाली प्रेतनी
नाम जिसका रेखा था
रात अमावस की एक थी
मैं मेरी साइकिल पर था
था भाग रहा सरपट सरपट
घर पहुँचू इस जल्दी में था
कि तभी अचानक ठाँय हुआ
तशरीफ़ लिए में धम से गिरा
देखा उठ साइकिल पंचर थी
अब पैदल ही आगे बढ़ना था
उस सड़क में आगे खंडहर था
वह कहते हैं भूतों का घर था
पर लोगों का काम ही कहना है
मुझको ना रत्ती भर डर था
कुछ आगे चल मुझे हुई थकान
अभी दूर बहुत था मेरा मकान
सोचा रुक कुछ साँसें ले लूँ
थोड़ी पैरों को भी राहत दे दूँ
पर हाथ पैर गये मेरे फूल
सड़क से जब हुई बत्ती गुल
झोंके तेज हवा के होने लगे
कुत्ते बिल्ली मिल रोने लगे
मैं तेज कदम से चलने लगा
नाक की सीध में बढ़ने लगा
तभी लगा मेरे कोई पीछे था
कोई बैठा बरगद के नीचे था
वह बरगद खंडहर वाला था
साइकिल में पड़ गया ताला था
मैं खींच रहा वह हिलती ना
कुछ कर लूँ आगे चलती ना
जब भय से नजरें नीची की थी
देखा झाड़ फंसी चक्कों में थी
निकाल झाड़ को जब मैं रहा
सहसा किसी ने मुझको छुआ
घूमा तो धड़कन रुक सी गयी
थी सफेद वस्त्र में प्रेत खड़ी
मैं आँख मींच रोता बोला
जाने दो मैं बच्चा भोला
वो हँसती बोली आँखें खोलो
क्यों रोते हो कुछ तो बोलो
मै हाथ छुड़ा के भागा यों
मेरे पीछे राॅकेट लगा हो ज्यों
मै भागा ज्यों छूटी गोली
भूतनी चिल्ला के बोली
क्यों भाग रहे यहाँ आओ तो
तुम नाम जरा बतलाओ तो
कभी यहाँ ना तुमको देखा है
आरे मेरा नाम तो सुन लो, 'रेखा' है
घर पहुँचा तो पुछा माँ ने
बेच दी साइकिल क्या तुने
मैं बोला घिरा था खतरे में
एक प्रेतनी के पचड़े में
जो साइकिल जाए तो जाए
जान बची तो लाखों पाए
बस तब से आहें भरता था
मै भूत पिशाच से डरता था
पर गजब हुआ कुछ अरसा बाद
एक कन्या कर गई नाम खराब
मेरे माता पिता संग बैठे थे
उस कन्या से बातें करते थे
फिर देख मुझे सब घर घुसते
हाय लोट गए हँसते हँसते
माँ बोली आ सुन ले बेटा
अपनी प्रेतनी से मिलता जा
मैंने कोने में साइकिल देखा
खिलखिला के फिर हँस दी 'रेखा'।