भूतिया ट्रेन
भूतिया ट्रेन
वो छुक छुक करके चलती थी
वो मटक मटक कर चलती थी
कोयले सी काली शक्ल की थी वो
इसलिए धुंआ उड़ाकर चलती थी
रेत के अथाह समंदर को चीर कर
जैसलमेर से गंगानगर तक जाती थी
रेत और धुंए से "भूत" बन जाते थे यात्री
इसलिए वह "भूतिया ट्रेन" कहलाती थीं ।
"कालू" इंजन उससे बहुत मजाक करता
सीटी मारकर उस पर लाइन भी मारता
मगर वह उसे घास भी नहीं डालती थी
अपनी मस्त चाल से उसे और चिढ़ाती थी
एक दिन "इलैक्ट्रिक ट्रेन" की आंधी आई
जिसमें वह "भूतिया ट्रेन" कहीं पर उड़ गई
प्रतिलिपि वाले आज भी उसको ढूंढ रहे हैं
उसके प्रेम में पड़कर "स्यापा" कर रहे हैं
किसी को कहीं मिले तो बता देना
प्रतिलिपि वालों को उसमें बिठा देना
भूतों से बड़ा प्रेम है प्रतिलिपि वालों को
किसी भूत प्रेत से एक बार उन्हें मिला देना।
