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Arun kumar Singh

Abstract

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Arun kumar Singh

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धुर्त पच्चीसा

धुर्त पच्चीसा

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मुख दमके मन परम मलिना

सदा स्वार्थ पुरन में लीना

दुखिया के रुदन जिनको भायी

अथ श्री धुर्त: यशगान सुनाई


भले भले काज से नित ये चूके

 पर जीवहा इनके कोयल कूके

जग ज्ञान समुचा इनमें समाया

पर केहु के काज ना आया


बस देस ही ना यह मिलत बिदेसा

भिन भिन रुप रंग सब भेसा

परम चतुर हर विधा के ज्ञानी

छल मे ना कोई इनका सानी


उपकार भाव कबहु ना जागी

लोभ द्वेष के सत् अनुरागी

बड़े बड़न के तलुवे चाटे

छोट मोटन को खूबही डाँटे


बाल काल से बोल धुरंधर

बात कटी तो कुपित भयंकर

एक वचन इनका ही साँचा

झुठ वचन ही भले हो बाँचा


तनिको ना इन्हे काज सुहाए

श्रम से इनका जी मिचीलाए

कामचोर बस दिखते भोले

कुर्सी पर बैठे बैठे सो ले


ठरक आपनो आप न संभले

निकट यौवना धँसक के जम ले

दाँत निपोरे नयन लड़ाय

दो गज जीवहा लार गिराय


ढीले नाड़े के कपटी स्वामी

नरपिशाच अद्भुत अभिमानी

जले जगत ये आग तपाए

मारे ठहाका जिया जलाए


नारी धुर्तों की कथा निराली

काज निकाले होंठ की लाली

पथ जब पड़ती धुर्त जनानी

महारथी भी माँगत पानी


इनके सुख की सबको चिंता

हर अफसर रज चरन के बिनता

पतलून में शंका करत धुरंदर

चंडी रुप जब धरे भयंकर


अंत शस्त्र इनका बड़ घातक

तय मरना भले भाग जहाँ तक

जब बहे नयन से जल की धारा

सब झुठे सत् शब्द तुम्हारा


हर रुप कुटिल बिन लाज तुम्हारा

अमर अजर परताप तुम्हारा

गीत बोल धुन साज तुम्हारा

हम भेड़न पर राज तुम्हारा


निज परम पतन कारक पथगामी

जय जय जय भूलोक के स्वामी।


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