वर्षा
वर्षा
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सूखी धरती पर वो वर्षा
से वह बदला रुप यूँ
वह यूँ तो था भूमि मरु सा
अब हो गया कानन सा ज्यों
जाने कहाँ से दादुरों के
दल पे दल आने लगे
मतवाले होकर प्रणय मद में
उग्र स्वर गाने लगे
टिप टिप का स्वर धीमा हुआ
चली हवा तब यूँ वेग से
छलक गया उन पत्तियों से
संचित जो जल, आवेग से
कभी कभी उन बादलों से
हो स्वतंत्र चंद्रमा आता है
असंख्य दर्पण से सुशोभित
दृश्य मनोरम लाता है
वह घर के बाहर जल की धारा
कागज के नावों से हँसी
वह दौड़ता निश्छल शिशु
कीचड़ से सनने की खुशी
अब के यह पक्की सड़क
यूँ पी गई बरसात को
दादुर वो कैसे खो गये
गाते नहीं अब रात को
है किताबों में दबी
बचपन की प्यारी सी हँसी
काश पल वो लौट आता
जब निष्छन्द थी अपनी खुशी।