प्रेम
प्रेम
प्रेम
रह जाता है
अप्रेम
जब तय करनी होती है परिमित दूरी
और पाना होता है अपरिमित प्रेम।
प्रेम
हो जाता है
क्षीण
जब वो अस्थिर पृथ्वी के
दो ध्रुवों पर हो जाता है स्थिर।
प्रेम
केवल शब्द है
यदि
उसे मापनी है धरती की दूरी
पत्थरों और हृदयों के मध्य गतिशील।
प्रेम
हो जाता है
मृत
जब उत्कंठा हो स्पर्श की
स्व-रक्त हो जाता है हत्यारा।
प्रेम
तभी अमृत है
जब
ईश्वर की स्थिरता सा है
एक कोशिका में भी
और अनंत तक विशाल
जो ये मानसिक प्रेम
बन जाये जो ईश्वरीय
उत्कंठा हो जाये समाप्त
प्रेम हो जाये अ-मृत।