परछाई
परछाई
अदृश्य दरवाज़ों,खिड़कियों से दाख़िल हो जाता
घरों में एक डर , रूप बदल बदल कर।
झझकोर कर नींद से उठा देता ,
सुबह हो जाती , करवट बदल बदल कर।
घूरता , मुस्कुराता , अट्टाह्स करता दूर जाकर,
कभी निकल जाता ,अग़ल बग़ल से छू कर ।
नन्हा बन खिलखिलाता ,पटक देता विशाल हो कर
जीने नहीं देता कोरोना का यह डर।
बर्तन धो धो कर , पोंछा मार कर
कारावास लगता अपना ही घर।
बीवी बन गयी जेलर।
दिलासा देते , प्रधानमंत्री मगर।
डरपोक नहीं मैं , लड़ सकता हूँ ,
डराता मगर ,यह अदृश्य होकर।
साये सा, पकड़ आता नहीं ,
पीछे पड़ा है , हाथ धो कर।