पंखुड़ी
पंखुड़ी
गहराई तेरी यादों की तहजीब में टिक गयी
शीशे सी गुड़िया मीनारों में बिक गयी
अंदाज़ से बेपरवाह किसी की हवा रही
बहकते बहकते हवा भी रुक गयी
शाम ढले ठहरी रही मौज
काठी खड़ी सी अजान तक झुक गयी
सरपरस्ती चूल्हे की लकड़ी खोज रही थी कभी
जो आग बुझी तो साँस भी बुझ गयी
इश्क़ को रंग दिया कुछ दिया
बेरंग कागज़ पे नाम लिख दिया
साज पिरोने तक महफिलें तेरी रही
सारंगी फिसलते ही महफिलें बुझ गयीं
नग्में बने कुछ अटपटे नाम के
पंखुड़ी फूल बनकर गुथ गयी।