पंछी से गरुण तक
पंछी से गरुण तक
जिस दिन इनका जन्म हुआ हर कोई न जाने क्यों बेचैन हुआ
हुआ जन्म एक कन्या का, हुआ जन्म एक जननी का, फिर भी कुछ कहते गलत हुआ।
जिस दिन इनका जन्म हुआ हर कोई न जाने क्यों बेचैन हुआ।
पहले दिन से सहना पड़ा भेद भाव इन्हें, घर मे कुछ थे ऐसे जो न लेते गोद इन्हें।
हर घड़ी लेती इम्तेहान इनका, कोई न था जिन्हें कहते इनका
अब बचपन उसका निखरा था, हर किसीका चेहरा उतरा था।
इसको घर में कैद किया, बाहर जाने से रोक दिया।
चुप चप वो बस सहमी रहती और खुद से अक्सर वो ये कहती कि ऐसा क्या अपराध किया?
पर न मिलता उसको उत्तर केवल मिलते कुछ नियम और कई नियम उसपर
जैसे तेसे दिन निकले और अब वो घर में बड़ी हुई, घरवालो के मानो प्राणो की उल्टी गिनती शुरू हुई।
ढूँढ़ो कोई वर इसको बस यही शोर हर घर घर और गली गली
न उसका कोई निर्णय था न उसका कोई अपना जीवन था।
हुआ वही जो सबने चाहा और कर दिया उसको अनजान के साथ रवाना।
घर एक नया उसने देखा देखे कुछ लोग नए, मन मे उसके कुछ सपनो ने न जाने कैसे लिये मोड़ नए।
नज़र लगी मानो सपनो को, फिर से उसको कैद किया और जैसा जीवन उसका पहेले था फिर वही सब उसने देख लिया।
ज़िम्मेदारी ज्यादा थी खुश करने की सबको, अब और कोई उम्मीद न थी अपनी किस्मत से उसको।
फिर भी उसने हिम्मत न हारी और करके सारी तैयारी वो हिमालय जैसी टिकी रही।
अब उसने पुरे किये सपने उस घर के और खुद को जैसे वो भुल गयी।
फिर एक दिन उस जननी ने जन्म दिया एक कन्या को, फिर उस दिन कुछ लोग फिर से बेचैन हुए।
लेकिन उसने ठाना था कि इसको खुले आसमां में उड़ना होगा चाहे मझे कितने रिश्तो से लड़ना होगा।
ऐसे उस जननी ने बडा किया उस पंछी को की फिर से सब लोग बेचैन हुए की कैसे ये छोटा सा पंछी आज विशाल गरुण बना।
जिस दिन इनका जन्म हुआ हर कोई न जाने क्यों बेचैन हुआ।
