पिता और बाहरी दुनिया
पिता और बाहरी दुनिया
जब छोटे होते थे तो पिता में ही पूरी दुनिया सिमटी
सी नजर आती थी
क्योंकि पिता ही वह सेतु से होते थे जो बड़ी जद्दोजहद से
बाहरी दुनिया से घर की चारदीवारी के भीतर
लाते थे ढेर सारे खिलौने ढेर सारी चीज़ें तब लगता
कि मानो पिता ही नहीं वरन वे जादूगर थे
जो एक बाहरी दुनिया से इकट्ठा करते हैं ढेर सारी चीज़ें
और शाम को सूरज के अस्त होते ही परिवार के लिए
ले आते हैं खुशियों के पिटारे तब मालूम नहीं था कि
वे यथार्थ की दुनिया में कैसे खून पसीना बहाते थे
वे अपने दुःख भूलकर हम पर सुख के खजाने लुटाते थे
वे हिमालय पर्वत से भले ही कठोर से नज़र आते थे
पर उस पर बहने वाली नदी सम वह भीतर ही भीतर
कई बार बहुत भीग जाते थे पर वह माँ की तरह
हम बच्चों को अपनी परेशानी नहीं बताते थे हम कई
बार उन्हें अक्खड़ की संज्ञा भी मन ही मन दे जाते थे
क्योंकि उनके कंधों पर भारी जिम्मेदारी के
बोझ को हम कहाँ देख पाते थे !
उनके खुरदरे हाथ कभी हमें नजर कहां आते थे
हम तो बस उस थैले को देखते थे जिसमें वे हम बच्चों के
लिए ढेर सारी खुशियों के खज़ाने लाते थे
आज पिता संध्या बेला के सूर्य से निस्तेज नज़र आते हैं
उम्र की ढालान ने छोड़ दिए कई निशान चेहरे पर
मगर फ़िर भी अभी भी हम बच्चों को देखकर उनकी
आँखें चमक उठती है स्नेह और आशीर्वाद से
बिन बोले भी वह आँखों से कई पैगाम दे जाते हैं
कि बच्चों अपनी दुनिया में निमग्न होते ही भूल मत जाना
उस पिता को जिसने दिया था बचपन में तुम्हें खुशियों का खजाना।