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Vinita Rahurikar

Abstract

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Vinita Rahurikar

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पहले सी नहीं रही

पहले सी नहीं रही

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वो बैठना चाहती

सुबह सुबह की नरम धूप में

खुली खिड़की के पास

ताज़ी हवा में

वो रात के अँधेरों की बात करता


वो सुनना चाहती

चिड़ियों का कलरव

भँवरे की गुनगुन

कोयल की कूक का 

 मधुर संगीत

वो जिंदगी के दुखों का राग अलापता


वो चलना चाहती

हवा के साथ

महकना चाहती फूलों के साथ

उड़ना चाहती तितलियों के साथ

झूमना चाहती

हरीभरी पत्तियों के साथ

ये सब उसे अपने साथी से लगते

वो अकेलेपन की त्रासदी सुनाता


वो गाती गीत नदी का

पनघट का

बैलों के गले की

घण्टियों की ताल पर

मन वीणा के सुर पर सजा

वो उदासी के गीत गाता

दर्द का राग अलापता


वो चाहती 

वो भी हँसे, मुस्कुराए 

गाये, गुनगुनाये

जीवन का राग

उसके साथ खुलकर 

जिये जीवन को

वो उलाहना देता कि 

उसे कोई परवाह नहीं है उसके दर्द का 


फिर एक दिन वो चुप हो गई

हँसना भूल गयी

कटने लगी जिंदगी से

खोने लगी अँधेरों में

हो गई उदास

वह अब उस पर

 इलज़ाम लगाता

की बदल गई है वो

पहले सी नहीं रही



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